भूमि सुधार को दो मतलब से समझा जा सकता है, जिसमें पहला सामाजिक दृष्टि से जिसमें कृषि योग्य भूमि को छोटे किसानों और किसान श्रमिकों जिनकी संख्या कही ज्यादा है के जीवन यापन योग्य भूमि का समान वितरण करके और वहीं दूसरी तरफ आर्थिक दृष्टि से कृषि योग्य भूमि का इस प्रकार से संरचनात्मक सुधार किया जाय जिससे देश मंे ज्यादा से ज्यादा कृषि उत्पादन प्राप्त किया जा सके। यहां यह कहना उचित होगा कि यह दोनों एक साथ भी हो सकते हैं लेकिन कुछ दुविधाएं अवश्य हैं जिसका समाधान किया जाना अभी भी शेष है हांलांकि प्रयास अभी भी जारी है।
भारत के स्वतंत्रता से पहले कृषि को औपनवेशिक दोहन के लिए लगातार उपयोग किया गया और इस कृषि लाभ या लगान के उद्देश्य से भूमि संसाधन का प्रयोग ही बदल दिया गया था। इस प्रकार भारत के स्वतंत्र संध्या के समय देश की भू-व्यवस्था में ऐसा संरचनात्मक परिवर्तन आ चुका था जो कि न तो सामाजिक और न ही आर्थिक दृष्टि से उपयुक्त था, जहां तक कृषि उत्पादन की बात थी इसके प्रगति की दर लगभग नगण्य हो गई थी।
इससे पहले कि हम भूमि सुधार संबधी कदमों पर चर्चा करें, हमें औपनवेशिक काल में भूमि बंदोबस्त को समझ लेना चाहिए जो मुख्यतः तीन प्रकार की थीं।
1. जमींदारी प्रथा- इस प्रथा का प्रारंभ 1793 में लार्ड कार्नवालिस द्वारा बंगाल में किया गया। इस भूमि व्यवस्था में जमीन का मालिक तो जामीनदार को बना दिया गया लेकिन कृषि कार्य श्रम उस जमीन पर आश्रित लोग करते जिन्हे काश्तकार कहा गया। प्रथा के अंतर्गत जमींदार को उत्पादन का निश्चित भाग मिलता था और वहीं सरकार को लगान चुकाता था, वास्तव में खेती करने वाले काश्तकार का कोई संबध राज्य के साथ सीधा नहीं होता था बल्कि जामीनदार राजय तथा काश्तकार के बीच बिचैलिया का काम करता था। यह व्यवस्था पश्चिमी बंगाल, बिहार, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश में प्रचलित रही है। जामीनदारी व्यवस्था भी दो प्रकार की थी- 1. स्थायी बंदोवस्त जिसके अंतर्गत लगान सदा के लिए नियत कर दिया गया । यह प्रणाली बंगाल, उत्तरी मद्रास और बनारस में लागू की गई थी और दूसरा था 2. अस्थायी बंदोबस्त इस अस्थायी बंदोबस्त व्यवस्था के अंर्गत विभिन्न राजयों में 20 से 40 सालों तक लिए लगान निश्चित कर दी जाती थी, इस प्रकार तय समय सीमा के बाद लगान को फिर से तय किया जा सकता था। इसे बंगाल के शेष जामीनदारों और अवध के बड़े किसानों पर लागू किया गया। यद्यपि मात्र कहने भर के लिए अस्थायी बंदावस्त था क्यों कि इसकी समय सीमा इतनी ज्यादा कर दी गई थी कि जिस पुनः नवीकरण करने में कोई खास दिक्कत नहीं होती थी। स्वंतंत्रता के पूर्व लगभग 19 प्रतिशत कृषि क्षेत्रफल पर यही व्यवस्था लागू थी। इस व्यवस्था की शोषण योग्य बात यह थी कि काश्तकार को तय लगाल किसी न किसी प्रकार जामीनदार को चुकाना ही होता था भले ही उतना उत्पादन हुआ हो या नहीं, ठीक यहीं यह बात भी जान लेना आवश्यक है कि यदि फसल किसी वजह से खराब भी हो गई तो राज्य सरकार द्वारा दी गई रियायत भी जामीनदार हड़प कर ले जाता था और काश्तकारों का शोषण जारी रखता था। जनसंख्या वृद्धि और ग्रामीण उद्योगों में लगातार आ रहे गिरावट जो कि औपनवेशिकता का परिणाम था लोगों की कृषि और भूमि पर आश्रितता और मजबूरी बढ़ गई जिसका सीधा फायदा जामीनदारों ने उठाया और राज्य का हस्तक्षेप न होने की या यूं कह लें राज्य सिर्फ अपने मुनाफे के कारण इसमें कुछ बोलने नहीं जाती थी और तय सीमा से कहीं ज्यादा लगान वसूल कर लिया जाता था। हांलाकि इस शोषण और व्यवस्था के खिलाफ कई किसान विद्रोह भी हुए थे।
2. महालवारी व्यवस्था- इस प्रणाली के अन्तर्गत भूमि पर किसी गांव या समुदाय को मालिक बना दिया जाता था जो कि समान्यतः मात्र प्रबंधन ;।हतपबनसजनतंस संदक डंदंहमउमदजद्धे के रूप में ही कार्य करते थे जिसमें खेती के लिए भूमि को खेती करने वाले व्यक्तियों में बांट दिया जाता था और उनसे उसके बदले लगान वसूल की जाती थी। इस व्यवस्था में सरकार को लगान देने की जिम्मेदारी गांव या समुदाय की होती थी यद्यपि इस प्रबंधन में संपूर्ण लगान का 5 प्रतिशत गांव या समुदाय को भी प्राप्त होता था जिसे ’’पंचोतरा’’ कहते थे। इस प्रणाली को विलियम वेंटिग ने आगरा और अवध में शुरू किया था जो कि बाद में मध्य प्रदेश और पंजाब में फैल गई। कुल कृषि की जा रही भूमि का लगभग 30 प्रतिशत भाग इसी महालवाड़ी व्यवस्था के अंतर्गत आता था।
क्रमशः
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Land Reforms in India
Posted by admin on October 10th, 2013 04:48 AM. Under Coaching Updates, Current Affairs, Fact File, Featured, General Studies, GeographyComments are closed.